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नीलम शर्मा 'अंशु'

1) आई बैसाखी




आज फिर आई है बैसाखी

दिन भर चलेगा दौर

एस एम एस, ईमेल, फेस बुक पर

बधाई संदेशों का....

याद हो आती है

इतिहास के पन्नों में दर्ज

एक वह बैसाखी जब

दशमेश ने 1699 में

जाति-पाति का भेद-भाव मिटा

मानवता की रक्षा खातिर

सवा लाख से एक को लड़ा

नींव रची थी खालसा पंथ की

शत-शत नमन, शत-शत वंदन

दशमेश के चरणों में।

                       

क्या सचमुच आज

हर्षोल्लास का दिन है?

ऐसे में जब याद हो आती हो

इतिहास के पन्नों में दर्ज

1919 की वह खूनी बैसाखी

जब जलियांवाले बाग में

हज़ारों बेगुनाह, निरीह, निहत्थी ज़िंदगियां

बर्बरता और क्रूरता का शिकार हुईं।

उन परिजनों तक

कौन पहुंचाएगा संवेदना संदेश

शत-शत नमन, वंदन उनकी अमर शहादत को

जिसने रखी थी नींव इन्क़लाब की।


2) 


खुश तो बहुते होगे न तुम 

अपनी इस जीत पर ?

तुम भले ही इसे अपनी जीत समझो 

हम तो क़ायरता ही कहेंगे। 

पता नहीं कौन सी मजबूरी रही होगी 

बदला लेने में तो तुम पल भर भी देर नहीं करते 

अरे, विषधर के डसे का भी

 इलाज संभव है 

कूकर के काटे का भी 

इंसान के डसे का कोई इलाज नहीं

 पर, ये दिल है कि समझता ही नहीं 

आख़िर पागल दिल जो ठहरा।


3)


कुछ जिज्ञासाएं थीं 

पर किससे पूछूं ?  

किसी के भी पास वक्त ही नहीं 

किसी का हाल-चाल पूछने का 

ख़ैरियत जानने का। 

ऐसे में जिज्ञासाओं का जवाब मिलना 

तो दूर की बात है। 


तो क्यों जन्म दिया था वृष्टि को तुमने ? 

क्यों भिगोया था उसे 

अपने स्नेह जल से ? 

 वृष्टि तो खुद ही भिगो सकती है 

समस्त धरा को अपने स्नेहिल स्पर्श से।

 उसी वृष्टि को सहेजने के बजाय 

दरकिनार कर दिया अपनी ज़िंदगी से ? 

वृष्टि ही अगर धरा से विमुख हो जाए तो ?


क्या हो सकता है, 

सोचा है कभी ? 

कल्पना की है कभी ?

और अगर वृष्टि 

आवेग से भर जाए? 

तहस-नहस हो जाएगी 

समस्त पृथ्वी जलमग्न हो 

और मेरी जिज्ञासाएं 

महज़ जिज्ञासाएं बन कर ही रह जाएंगी।



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