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पूरन सिंह

पुरूषत्व




मैं

चाहती हूॅं

घर और बाहर

तुम्हारी शक्ति बनूं

साथ दूं तुम्हारा

जीवन के उबड खाबड रास्तों पर।

मैं चाहती हूॅं

मैं तुम्हारे ओर तुम मेरे नाम से

जाने जाओ।

मैं चाहती हूॅं

मैं और तुम से दूर हम हों

हम दोनों

लेकिन

तुम हो कि निरंतर हारते रहते हो

अकेले/बिल्कुल अकेले

तुम्हें

मेरे साथ की जरूरत है,

तुम चाहते भी हो साथ चलना मेरे

लेकिन

चाहकर भी नहीं चल पाते

क्योंकि

तुम्हारा पुरूषत्व तुम्हारे रास्ते में

खडा हो जाता है फन उठाए।

और तुम

मर मर कर जीते हो

और

जी जी कर मरते





 


काश! तुम स्त्री होते


काश

तुम स्त्री होते

ओर

समझते/महसूस करते उस पीड़ा को

जो तुम

हमें रोज/हर पल देते हो

घरों/चैराहों/दफ्तरों और एकांत में।

त्ुाम देखते

अपनी ही आंखों से लुटते हुए

अपना सर्वस्व

छोटी छोटी बातों पर।

तुम

देखते

मेरे समर्पण को

और

तौलते अपने अहंकार को

मेरे विश्वास और अपने विश्वासघात के तराजू पर।

तुम

समझते

रिश्तों के यथार्थ को

जिसे

निभाते निभाते

मैं

आखिरी सांस तक अपना अस्तित्व ही भूल जाती हूॅं,

और

तुम्हारे जीवन के दर्पण में देखती हूॅं

स्वयं को!

तब

मैं कहां होती हूॅं

जिधर देखती हूॅं सिर्फ तुम ही तुम होते  हो ।

मेरे अतीत/वर्तमान और भविष्य!

अच्छा, मान भी जाओ

और

एक पल को स्त्री बनकर देखो।

नहीं

त्ुाम

एकपल को भी स्त्री नहीं बनना चाहते।

अरे यह क्या!

देते हो तुम मुझे जो

उसका सच भी जानते हो/तुम

और

डरते हो सिर्फ कल्पना भर से

और

मैं

मेरा क्या

मैं तो स्त्री 



भगवान


मैंने

भगवान को देखा है

म्ंादिर में।

झूठ

धोखा

ढोंग।

मैंने देखा है।

कहाॅं

अपने बाप के

पांव के छालों में

हाथों में पड़ी ठेंठों में

पीठ के घावों में

तपती धूप मेंर्

इंट गारा से जूझते हुए

कमीज के दामन में

दो जून की रोटी लाते हुए

रात में अकेले रोते हुए

अक्सर भूख से

तड़पते हुए

और तड़प तड़पकर

मरते हुए।

 





वह कब समझ पाएगा


वह

रात दिन

जूझता रहा

ईंट, गारा और पत्थरों से

खडे करता रहा लोगों के घर/महल/दुमहले

ल्ेकिन

उसका अपना घर कभी नहीं बन पाया

हाॅं,

उसने कमीज के दामन में/भरकर लाए

गेहूॅं/चावल और दाल से

बडा किया अपने बच्चों को

उन्हें पढाया/लिखाया और

देखा सपना

उनके बडे आदमी होने का ।

सपना सच हुआ

उसके बच्चों के घर/महल/दुमहले बने

जिन्हें देख

वह

खुशी से झूमने लगा

और पहुॅंच गया मंदिर

चूमने लगा पांव

मंदिर में बैठे देवताओं के ।

मैं

रो दिया

उसके/इस चलन पर

कि

मंदिर मेें बैठे देवताअेां

और

उसकी मेहनत के बीच का फर्क

वह

कब समझ पाएगा।

दो पल का सफर

तुम

आते हो मेरे सपनों में

किसी राजकुमार की तरह

मैं

झूलती हूॅं तुम्हारी बाॅंहों में/और

तुम्हारी आॅंखों में आॅंखें डालकर

भुला देती हूॅं दुनिया को

समां जाती हूं तुम्हारी साॅंसों में

तुम चूमते हो मेरे होठ

और पहुॅंच जाते हो

मेरी जांघों तक

होठों से जाॅंघों तक का सफर

मेरे लिए

जीवन और मृत्यु का सफर है

और / तुम्हारे लिए

सिर्फ दो पल का सफर।



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